Site icon Asian News Service

अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त विशेषाधिकार के जरिये विवाह खत्म करने का शीर्ष अदालत को अधिकार : न्यायालय

Spread the love

नयी दिल्ली, एक मई (ए) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को व्यवस्था दी कि वह जीवनसाथियों के बीच आई दरार भर नहीं पाने के आधार पर किसी शादी को खत्म करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल कर सकता है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत छह महीने की अनिवार्य अवधि के प्रावधान का इस्तेमाल किये बिना दोनों पक्षों को परस्पर सहमति के आधार पर तलाक की अनुमति दे सकता है।.

न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी वादकार संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर करके न सुधर पाने वाले रिश्तों के आधार पर विवाह समाप्त करने का अनुरोध नहीं कर सकता।.

संविधान का अनुच्छेद 142 शीर्ष अदालत के समक्ष लंबित किसी मामले में ‘संपूर्ण न्याय’ के लिए उसके आदेशों के क्रियान्वयन से संबंधित है। अनुच्छेद 142(एक) के तहत उच्चतम न्यायालय की ओर से पारित आदेश पूरे देश में लागू होता है।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी आपसी सहमति से तलाक से संबंधित है और इस प्रावधान की उप-धारा (2) यह व्यवस्था करती है कि पहला प्रस्ताव पारित होने के बाद, पक्षकारों को दूसरे प्रस्ताव के साथ अदालत का रुख करना होगा, यदि तलाक संबंधी याचिका छह महीने के बाद और पहले प्रस्ताव के 18 महीने के भीतर वापस नहीं ली जाती है।

न्यायमूर्ति एस. के. कौल की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि जीवनसाथियों के बीच रिश्तों में आई दरार भर नहीं पाने के आधार पर तलाक की अनुमति देना अधिकार नहीं, बल्कि विशेषाधिकार है, जिसका इस्तेमाल विभिन्न कारकों को ध्यान में रखते हुए बहुत ही सावधानी से किया जाता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दोनों पक्षों के साथ ‘पूर्ण न्याय’ हो।

शीर्ष अदालत इन प्रश्नों पर अपना निर्णय दे रही थी कि क्या जीवनसाथियों के बीच आई दरार भर नहीं पाने के आधार पर किसी शादी को खत्म करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करके तलाक की अनुमति दी जा सकती है, खासकर तब जब एक पक्ष तलाक देना न चाहता हो।

पीठ ने कहा, ‘‘हमने अपने निष्कर्षों के अनुरूप, व्यवस्था दी है कि इस अदालत के लिए किसी शादीशुदा रिश्ते में आई दरार के भर नहीं पाने के आधार पर उसे खत्म करना संभव है। यह सरकारी नीति के विशिष्ट या बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं होगा।’’

संविधान पीठ में न्यायमूर्ति कौल के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति ए एस ओका, न्यायमूर्ति विक्रमनाथ और न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी भी शामिल थे।

पीठ की ओर से न्यायमूर्ति खन्ना ने 61 पन्नों का फैसला लिखते हुए कहा, ‘‘हमने कहा है कि इस अदालत के दो फैसलों में उल्लेखित जरूरतों और शर्तों के आधार पर छह महीने की अवधि दी जा सकती है।’’

शीर्ष अदालत ने पिछले साल 29 सितंबर को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा था।

उसने दलीलों पर सुनवाई करते हुए कहा कि सामाजिक परिवर्तनों में थोड़ा समय लगता है और कई बार कानून बनाना आसान होता है, लेकिन समाज को इसके साथ बदलाव के लिए मनाना मुश्किल होता है।

पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142(1) के तहत शीर्ष अदालत की शक्ति और अधिकार क्षेत्र के दायरे तथा सीमा से संबंधित सवाल का जवाब देते हुए कहा कि शीर्ष अदालत प्रक्रिया के साथ-साथ मूल कानूनों से भी हट सकती है, यदि निर्णय मौलिक सामान्य और विशिष्ट सार्वजनिक नीति के विचारों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है।

शीर्ष अदालत ने इस बात पर भी विचार किया कि क्या वह घरेलू हिंसा कानून, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 या भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए और अन्य प्रावधानों के तहत आपराधिक मुकदमों का भी निपटारा कर सकती है।

न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई भी वादकार संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर करके न सुधर पाने वाले रिश्तों के आधार पर विवाह समाप्त करने का अनुरोध नहीं कर सकता।

संविधान पीठ ने पूर्व में दिए गए शीर्ष अदालत के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्था दी गयी है कि इस तरह के किसी भी प्रयास को खारिज कर दिया जाना चाहिए और न सुधरने वाले रिश्तों के आधार पर अनुच्‍छेद 32 के तहत शीर्ष अदालत के समक्ष या अनुच्‍छेद 226 के तहत उच्‍च न्‍यायालय के समक्ष तलाक की याचिका दायर करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

Exit mobile version