नयी दिल्ली: एक सितंबर (ए)
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्ययन सहित रिकार्ड पर प्रस्तुत सामग्री का हवाला देते हुए ‘‘निराशा’’ व्यक्त की कि कानून के दायरे से इन स्कूलों को अलग रखने के फैसले ने दुरुपयोग के लिए उपजाऊ जमीन तैयार कर दी।पीठ ने कहा, ‘‘हम अत्यंत विनम्रता के साथ यह कहना चाहते हैं कि प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट मामले में लिए गए फैसले ने अनजाने में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की नींव को ही खतरे में डाल दिया। अल्पसंख्यक संस्थानों को शिक्षा का अधिकार कानून से छूट देने से समान स्कूली शिक्षा की अवधारणा पर असर पड़ता है और अनुच्छेद 21ए में निहित समावेशिता और सार्वभौमिकता का विचार कमजोर होता है।’
अनुच्छेद 21ए शिक्षा के अधिकार से संबंधित है और इसके अनुसार, ‘सरकार छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगी।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि शिक्षा का अधिकार कानून बच्चों को बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षित शिक्षक, किताबें, वर्दी और मध्याह्न भोजन जैसी कई सुविधाएं सुनिश्चित करता है।
हालांकि, शिक्षा का अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखे गए अल्पसंख्यक स्कूल ये सुविधाएं प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘कुछ अल्पसंख्यक स्कूल शिक्षा का अधिकार कानून के तहत अनिवार्य कुछ सुविधाएं प्रदान करते हैं, लेकिन कुछ अन्य स्कूल ऐसा नहीं कर पाते जिससे उनके छात्रों को ऐसी अनिवार्य सुविधाओं तक पहुंच नहीं मिल पाती। इनमें से कई छात्रों के लिए, ऐसे लाभ सिर्फ़ सुविधाएं नहीं, बल्कि समानता और मान्यता की पुष्टि हैं।’
पीठ ने कहा कि भौतिक प्रावधानों के अलावा, आरटीई कानून अधिसूचित शैक्षणिक प्राधिकारों के माध्यम से समान पाठ्यक्रम मानकों को भी सुनिश्चित करता है, जो प्रत्येक बच्चे को संवैधानिक मूल्यों पर आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी देता है।
पीठ ने कहा, ‘हालांकि, अल्पसंख्यक संस्थान ऐसे समान दिशा-निर्देशों के बिना काम करते हैं, जिससे बच्चों और उनके अभिभावकों को इस बात की अनिश्चितता बनी रहती है कि उन्हें क्या और कैसे पढ़ाया जाता है, और अक्सर वे सार्वभौमिक शिक्षा के राष्ट्रीय ढांचे से कटे रहते हैं।’
शीर्ष अदालत ने कहा कि जाति, वर्ग, पंथ और समुदाय से परे बच्चों को एकजुट करने के बजाय, यह स्थिति साझा शिक्षण स्थलों की परिवर्तनकारी क्षमता को ‘विभाजित और कमजोर’ करती है।
पीठ ने कहा, ‘यदि लक्ष्य एक समान और एकजुट समाज का निर्माण करना है, तो ऐसी छूट हमें विपरीत दिशा में ले जाती हैं। सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के प्रयास के रूप में शुरू की गई इस पहल ने अनजाने में एक नियामकीय खामी पैदा कर दी है, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा का अधिकार कानून द्वारा निर्धारित व्यवस्था को दरकिनार करने के लिए अल्पसंख्यक दर्जा चाहने वाले संस्थानों में वृद्धि हुई है।’