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वनस्पतिक औषधियां आज की आवश्यकता,राजस्थान बना मान्यता प्रदान करने वाला पहला राज्य

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गाजीपुर,11 जनवरी एएनएस। जीवन को सुचारु रुप से व्यतीत करने हेतु मानव वनस्पतियों पर निर्भर है और स्वास्थ्य रक्षा में वनस्पतियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। रामायण काल में, मेघनाथ के शक्ति घात से मूर्छित लक्ष्मण की जीवन रक्षा संजीवनी बूटी से ही हो सकी थी तो वहीं अश्विनी कुमारों ने जर्जर हालत को प्राप्त च्यवन ऋषि को वनस्पतियों की सहायता से ही नवजीवन प्रदान किया था। इतना ही नहीं बल्कि गत वर्ष से अब तक कोरोना वायरस(कोविड 19)के संक्रमण से निजात दिलाने में वनस्पतियों (गिलोय,तुलसी,हल्दी) के काढ़े ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रकृति के पंचतत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु) से पोषित वनस्पतियां अपने समावेशित प्रभाव से रोगों को दूर करने में काफी सफल रही हैं।
उक्त विचार काउंट मैटी सोसाइटी द्वारा आयोजित, वानस्पतिक चिकित्सा पद्धति “इलेक्ट्रो होमियोपैथी” के अविष्कारक काउंट सीजर मैटी के 212 वें जन्मदिन समारोह में बोर्ड आफ इलेक्ट्रो होमियोपैथिक मेडिसिन के प्रवक्ता डा.ए.के.राय ने व्यक्त किया।
इससे पूर्व समारोह का शुभारंभ महात्मा मैटी के चित्र के सम्मुख दीप प्रज्वलित तथा माल्यार्पण कर किया गया। वक्ताओं ने उनके जीवन पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सिजर मैटी का जन्म 11 जनवरी 1809 को इटली के बोलांग्ना में हुआ था। रोम के शासक पोप ने उन्हें वहां की सर्वोच्च उपाधि कांउट से सम्मानित किया था। उन्होंने रोग पीड़ितों की सेवा का व्रत लिया और उसी क्रम में रोगियों को हानिरहित एवं सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने हेतु अनेकों चिकित्सकीय ग्रन्थों तथा वैज्ञानिक साहित्यों का अध्ययन किया। अध्ययन के दौरान ही पन्द्रहवीं शताब्दी में जर्मनी के महान दार्शनिक वैज्ञानिक पैरासेल्सस द्वारा प्रतिपादित दो सिद्धातों (वनस्पतियों में विद्युतीय शक्ति विद्यमान होती है तथा समान से समान का शमन होता है) से प्रभावित होकर तथा चिकित्सा के क्षेत्र में उसकी अपार सम्भावनाएँ देखकर महात्मा मैटी ने सिर्फ वनस्पतियों से औषधियों निर्मित करना तथा उसे अपने रोगियों को प्रयोग कराना प्रारम्भ किया। उन वानस्पतिक औषधि के प्रयोग से रोगियों में आशातीत लाभ देखकर उन्होंने सिर्फ वनस्पतियों से औषधियों को निर्मित कर, तथा उसे अपने रोगियो पर प्रयोग करा कर अपना अनुसंधान कार्य प्रारंभ किया। अन्त में अपने प्रयोगों, अनुभवों तथा शोध के फलस्वरूप पीड़ित मानवता के दुःख दर्द को दूर करने हेतु वर्ष 1865 में एक नवीन चिकित्सा पद्धति “इलेक्ट्रो होमियोपैथी” का आविष्कार किया।
इस चिकित्सा पद्धति में रोगों के इलाज हेतु मात्र प्राकृतिक वनस्पतियों का ही उपयोग किया जाता है। इस पूर्णरूपेण वानस्पतिक चिकित्सा पद्धति की औषधियां अनुपम, विषविहीन, हानि रहित और तत्काल गुणकारी होती हैं जो मूल विकार को नष्ट करने में सक्षम होती हैं।
इलेक्ट्रो होमियोपैथी अपने चिकित्सकों के माध्यम से आज विश्व के अनेक देशों में अपनी औषधियों द्वारा रोग पीड़ितों को स्वास्थ्य लाभ पहुंचा रही है।
भारत में इलेक्ट्रो होम्योपैथी का आरम्भ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व बीसवीं सदी के आरम्भ से ही होता रहा और आज लगभग देश के सभी प्रांतों में इलेक्ट्रो होमियोपैथी के चिकित्सक, शिक्षण संस्थान कार्यरत हैं जो इन औषधियों के माध्यम से पीड़ित मानवता को रोगमुक्त कर रहे हैं।

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