नयी दिल्ली: 15 सितंबर ( ए)) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों पर रोक लगा दी, जिनमें यह भी शामिल है कि केवल वे लोग ही किसी संपत्ति को वक्फ के रूप में दे सकते हैं जो पिछले पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहे हैं। हालांकि, शीर्ष अदालत ने पूरे कानून पर स्थगन से इनकार कर दिया।
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इस विवादास्पद मुद्दे पर 128 पन्नों के अपने अंतरिम आदेश में कहा, ‘‘पूर्व धारणा हमेशा कानून की संवैधानिकता के पक्ष में होती है और हस्तक्षेप केवल दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में किया जा सकता है।’’पीठ ने कहा, ‘‘हमें ऐसा नहीं लगता कि पूरे कानून के प्रावधानों पर रोक का कोई मामला बनता है। इसलिए, अधिनियम पर रोक के अनुरोध को खारिज किया जाता है।’’
हालांकि, ‘‘पक्षों के हितों की रक्षा’’ और ‘‘‘बैलेंसिंग द इक्विटीज’’ के लिए, न्यायालय ने जिलाधिकारी को वक्फ संपत्तियां तय करने के लिए दी गई शक्तियों सहित कुछ प्रावधानों पर रोक लगा दी तथा वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम भागीदारी के मुद्दे पर आदेश जारी किया।
‘‘बैलेंसिंग द इक्विटीज’’ वह कानूनी सिद्धांत है, जिसके तहत न्यायालय विवाद में शामिल सभी पक्षों के संभावित लाभ और हानि के साथ-साथ व्यापक सार्वजनिक हितों को भी ध्यान में रखता है, ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि निषेधाज्ञा जैसी न्यायसंगत राहत प्रदान की जाए या नहीं।
पीठ ने केंद्रीय वक्फ परिषद को निर्देश दिया कि कुल 20 में से चार से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होने चाहिए, और राज्य वक्फ बोर्डों में 11 में से तीन से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होने चाहिए।
आदेश में कहा गया है, ‘‘संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 3 के खंड (आर) का वह भाग जिसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो यह दर्शाता या प्रदर्शित करता है कि वह कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है, उस वक्त तक स्थगित रहेगा जब तक कि राज्य सरकार द्वारा यह निर्धारित करने की प्रक्रिया के लिए नियम नहीं बनाए जाते कि व्यक्ति कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं।’’
शीर्ष अदालत ने उस प्रावधान पर भी रोक लगा दी जिसमें कहा गया है कि किसी संपत्ति को ‘‘उस वक्त तक वक्फ संपत्ति नहीं माना जाए जब तक कि नामित अधिकारी अपनी रिपोर्ट नहीं सौंप देता।’’
इसके अलावा, एक अन्य प्रावधान, जिसमें कहा गया है कि नामित अधिकारी द्वारा संपत्ति को सरकारी संपत्ति घोषित करने के मामले में, उसे राजस्व रिकॉर्ड में आवश्यक संशोधन करना होगा और राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपनी होगी।
न्यायालय ने कहा, ‘‘जब तक संशोधित वक्फ अधिनियम की धारा 3सी के तहत वक्फ संपत्ति के स्वामित्व से संबंधित मामले का, धारा 83 के तहत अधिकरण द्वारा शुरू की गई कार्यवाही में अंतिम रूप से निर्णय नहीं हो जाता, न तो वक्फ को संपत्ति से बेदखल किया जाएगा और न ही राजस्व रिकॉर्ड व वक्फ बोर्ड के रिकॉर्ड में की गई प्रविष्टियां प्रभावित होंगी।’’
पीठ ने कहा कि जब तक विवादित संपत्ति के मालिकाना हक के संबंध में अधिकरण द्वारा अंतिम निर्णय नहीं दिया जाता और अपील पर उच्च न्यायालय के आदेश नहीं आ जाते, किसी तीसरे पक्ष के अधिकार नहीं सृजित किए जाएंगे।
हालांकि, पीठ ने संशोधित कानून की धारा 23 (मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा की अन्य शर्तें) पर रोक नहीं लगाई, लेकिन अधिकारियों को यह निर्देश दिया कि ‘‘जहां तक संभव हो, बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, जो पदेन सचिव भी होते हैं, की नियुक्ति मुस्लिम समुदाय से करने का प्रयास किया जाए।’’
पीठ ने स्पष्ट किया कि उसके निर्देश प्राथमिक दृष्टया और अंतरिम प्रकृति के हैं तथा ये न तो याचिकाकर्ताओं को और न ही सरकार को कानून की संवैधानिक वैधता पर अंतिम सुनवाई के दौरान पूर्ण दलील पेश करने से रोकते हैं।
कानून के अनुसार, वक्फ उस दान को कहा जाता है जो कोई मुस्लिम व्यक्ति धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिए करता है, जैसे मस्जिद, स्कूल, अस्पताल या अन्य सार्वजनिक संस्थानों का निर्माण।
कानून की वैधता के मुद्दे पर, पीठ ने पूर्ववर्ती निर्णयों का हवाला देते हुए कहा, ‘‘अदालतों को किसी कानून के प्रावधानों पर अंतरिम रोक लगाने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। इस प्रकार की अंतरिम राहत केवल दुर्लभ और असाधारण मामलों में ही दी जा सकती है…।’’
न्यायालय के फैसले में यह रेखांकित किया गया कि अदालतें हमेशा यह मानकर चलती हैं कि किसी अधिनियम की संवैधानिकता सही है, और उस पर सवाल उठाने वाले व्यक्ति पर यह जिम्मेदारी होती है कि वह यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करे कि उसमें संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है।
आदेश में 1923 से अब तक की विधायी पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया गया, जब मुसलमान वक्फ अधिनियम, 1923 बनाया गया था।
पीठ ने कहा, ‘चूंकि वक्फ संपत्तियों के कुप्रबंधन की समस्या को विधायिका ने पहले ही चिह्नित कर लिया था, इसलिए वर्ष 1923 में ही एक कानून की आवश्यकता महसूस की गई थी।’’जहां न्यायालय ने पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहे व्यक्ति को वक्फ बनाने की पात्रता की शर्त को मनमाना नहीं माना, वहीं यह भी कहा कि ‘‘चूंकि अभी तक यह निर्धारित करने की कोई प्रक्रिया या तंत्र नहीं है कि कोई व्यक्ति कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं, इसलिए ऐसी व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता।’’