नयी दिल्ली: 22 मई (ए)।) उच्चतम न्यायालय ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बृहस्पतिवार को तीन मुद्दों पर अपना अंतरिम आदेश सुरक्षित रख लिया, जिसमें “अदालतों द्वारा वक्फ, वक्फ बाई यूजर या वक्फ बाई डीड” घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने की शक्ति भी शामिल है।
शीर्ष अदालत ने साथ ही संवैधानिकता की धारणा के संशोधित वक्फ कानून के पक्ष में होने की बात दोहराई।
प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने संशोधित वक्फ कानून को चुनौती देने वालों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, राजीव धवन, अभिषेक सिंघवी और हुजेफा अहमदी तथा केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलें लगातार तीन दिन तक सुनने के बाद अपना अंतरिम आदेश सुरक्षित रख लिया।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “मैं पहले ही कह चुका हूं कि इसमें संवैधानिकता की धारणा है।”
इससे पहले, 20 मई को भी प्रधान न्यायाधीश ने यही बात कही थी और याचिकाकर्ताओं को स्पष्ट किया था, “अंतरिम राहत के लिए आपको एक बहुत मजबूत और स्पष्ट मामला बनाना होगा। वरना संवैधानिकता की धारणा लागू रहेगी।”
याचिकाकर्ताओं ने तीन प्रमुख मुद्दों पर अंतरिम आदेश पारित करने का अनुरोध किया है।
इनमें से पहला मुद्दा “अदालतों द्वारा वक्फ, वक्फ बाई यूजर या वक्फ बाई डीड” घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने की शक्ति से जुड़ा हुआ है।
दूसरा मुद्दा राज्य वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना से संबंधित है। याचिकाकर्ताओं की दलील है कि पदेन सदस्यों को छोड़कर केवल मुसलमानों को ही राज्य वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद में काम करना चाहिए।
तीसरा मुद्दा उस प्रावधान से जुड़ा है, जिसमें कहा गया है कि जब कलेक्टर यह पता लगाने के लिए जांच करते हैं कि संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं, तो वक्फ संपत्ति को वक्फ नहीं माना जाएगा।
केंद्र सरकार ने इस अधिनियम का दृढ़ता से समर्थन करते हुए कहा कि वक्फ अपनी प्रकृति से एक “धर्मनिरपेक्ष अवधारणा” है और “संवैधानिकता की धारणा” के इसके पक्ष में होने के मद्देनजर इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती।
उसने दलील दी कि वक्फ भले ही एक इस्लामी अवधारणा है, लेकिन यह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।
वहीं, याचिकाकर्ताओं की पैरवी कर रहे सिब्बल ने इस कानून को “ऐतिहासिक कानूनी और संवैधानिक सिद्धांतों से पूर्ण विचलन” तथा “गैर-न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से वक्फ पर कब्जा करने” का जरिया बताया।
सिब्बल ने कहा, “यह वक्फ संपत्तियों पर सुनियोजित तरीके से कब्जा करने का मामला है। सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कौन से मुद्दे उठाए जा सकते हैं।”
सॉलिसिटर जनरल मेहता ने बृहस्पतिवार को अपनी दलीलें पेश करते हुए अदालत से आग्रह किया कि वह विधिवत रूप से बनाए गए कानून पर रोक लगाने में जल्दबाजी न करे।
उन्होंने कहा, “प्रस्ताव पेश करना कठिन नहीं है और सिर्फ इसलिए कि बहस की जा सकती है, सक्षम विधायिका की ओर से पारित कानून पर रोक लगाना उचित नहीं है।”
कानून के तहत आदिवासी भूमि को शामिल न किए जाने के प्रावधान को रेखांकित करते हुए मेहता ने कहा कि अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियां संवैधानिक रूप से संरक्षित वर्ग हैं और संशोधित कानून में इस व्यवस्था का सम्मान किया गया है।
पीठ ने सवाल किया कि क्या धार्मिक पहचान सांस्कृतिक सुरक्षा को दरकिनार कर सकती है, खासकर तब जब वक्फ संपत्तियां आदिवासी भूमि पर बनाई गई हों।
मेहता ने कहा, “वक्फ अल्लाह के लिए है। इसे बदला नहीं जा सकता। अगर बाद में इसे असंवैधानिक पाया जाता है, तो इसे रद्द किया जा सकता है। लेकिन इस बीच अपरिवर्तनीय वक्फ बनाने के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।”
सॉलिसिटर जनरल ने उस प्रावधान का बचाव किया, जिसमें कहा गया है कि केवल वही व्यक्ति वक्फ बना सकता है, जो पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है। उन्होंने कहा कि यह प्रावधान फर्जी वक्फ की स्थापना को रोकने के लिए आवश्यक है, न कि वास्तविक धार्मिक प्रथाओं को नकारने के लिए।
मेहता ने कहा, “अगर कोई हिंदू कोई धर्मार्थ संस्था बनाना चाहता है, तो इसके लिए कानूनी रास्ते मौजूद हैं। वक्फ का इस्तेमाल क्यों किया जाए?” उन्होंने कहा कि गैर-मुस्लिम भी ट्रस्ट बनाकर दान कर सकते हैं।
मेहता ने कहा कि आवश्यक धार्मिक प्रथाओं की अवधारणा ‘वक्फ बाई यूजर’ की रक्षा नहीं करती, जो मूल इस्लामी सिद्धांत के बजाय कानून के तहत विकसित की गई अवधारणा है।
उन्होंने गैर-मुस्लिमों के वक्फ संपत्ति बनाने संबंधी चिंताओं का जिक्र किया और कहा, “वक्फ बनाने और उसे दान देने में अंतर है। हिंदू वक्फ को दान तो दे सकता है, लेकिन वक्फ नहीं बना सकता।”
राजस्थान सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने केंद्र का समर्थन करते हुए कहा कि इस्लामी कानून में ‘वक्फ बाई यूजर’ का कोई आधार नहीं है, बल्कि इसे आजादी के बाद प्रतिकूल कब्जे जैसे सिद्धांतों के माध्यम से पेश किया गया था।
सिब्बल ने जवाबी दलीलें पेश करते हुए कहा कि यह अधिनियम “स्पष्टतः मनमाना, अपरिवर्तनीय और कब्जा करने की प्रवृत्ति वाला” है।
उन्होंने कहा कि धारा 3सी यह तय होने से पहले ही मुसलमानों से उनके अधिकार छीन लेती है कि कोई संपत्ति सरकारी भूमि है या वक्फ।
सिब्बल ने संशोधन की प्रक्रियागत निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए कहा, “कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है कि इस तरह का निर्धारण कैसे किया जाएगा।”
वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि केंद्र ने इस कानून के जरिये “वक्फ की अवधारणा को खत्म कर दिया है।”
उन्होंने कानून के आधार पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह अनुच्छेद 25 और 26 के तहत गारंटीकृत व्यक्तिगत और संस्थागत धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
इस दलील का जवाब देते हुए कि ‘वक्फ बाई यूजर’ का अधिकार एक कानून के तहत दिया गया था और इसे बाद में एक कानून के जरिये वापस भी लिया जा सकता है, धवन ने कहा कि कानून “भगवान की तरह काम नहीं कर सकता।”
उन्होंने कहा, “कानून ‘वक्फ बाई यूजर’ की अवधारणा विकसित नहीं करता, यह सिर्फ उसे मान्यता देता है।”
केंद्र सरकार ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को पिछले महीने अधिसूचित किया था। इसे पांच अप्रैल को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिली थी।
वक्फ संशोधन विधेयक को लोकसभा में 288 सदस्यों के मत से पारित किया गया था, जबकि 232 सांसद इसके खिलाफ थे। राज्यसभा में इसके पक्ष में 128 और विपक्ष में 95 सदस्यों ने मतदान किया था।