सूर्य षष्ठी ! सूर्योपासना में छिपे हैं अनेकों रहस्य,पर्यावरण संरक्षण को समर्पित है डाला छठ

उत्तर प्रदेश गाजीपुर
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(डा. ए.के.राय)
गाजीपुर(उत्तर प्रदेश),19 नवम्बर 2020। वैदिक ग्रन्थों में प्रकृति को सर्वभौमिक चेतन सत्ता कहा गया है। मानव आदिकाल से ही अपने जीवन के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है। प्रकृति के पंच महाभूत जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हमारे वैदिक मनीषियों ने भी हर त्यौहार में प्रकृति की आराधना और उपासना को प्रमुख स्थान दिया है। आज जहां पूरा विश्व समुदाय पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा की दुहाई दे रहा है। वहीं भारत के आध्यात्मिक संत व मनिषियों ने अपने ज्ञान के बल पर उसी समय प्रकृति को संरक्षित करने का महत्व बताया था जो आज भी हिन्दू त्यौहारों में दिखता है।
इसका उदाहरण कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाले “छठ व्रत” पर्व पर साफ दृष्टिगोचर होता है। यह पर्व पूर्ण रुप से प्रकृति व पर्यावरण को समर्पित होता है। इस पर्व पर जन, जल, जमीन,जागृति, जलवायु तथा स्वच्छता का अनुपम संयोग देखने को मिलता है। क्षितिज पर मौजूद सूर्य सृष्टि और उर्जा शक्ति के स्रोत पूंज हैं। उनकी उर्जा को स्वयं में जागृत करने का यह महापर्व है। सूर्य की शक्तियों व उर्जा का उपयोग आदि काल से होता रहा है। सूर्य देव के प्रभाव से जीवन में हर्ष, उमंग,उल्लास तथा ऊर्जा का संचार होता है
यह आध्यात्मिक व वैज्ञानिक सत्यता है कि सूर्योपासना व सूर्य नमस्कार यौगिक क्रियाएं हैं जिसके करने से शारीरिक आरोग्य दायिनी शक्तियां सूर्य की ऊर्जा से ऊर्जावान होती हैं। इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा के चलते नयी स्फूर्ति का संचार होता है। आज वैज्ञानिक युग में सूर्य की सौर ऊर्जा (सोलर एनर्जी) का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है।
सूर्योपासना का यह अनुपम त्यौहार सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा, पारिवारिक व आत्मिक उन्नति के लिए, श्रद्धा व विश्वास के साथ कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है।
छठ पर्व के पूर्व ही घर परिवार के लोग मिलजुल कर जल स्रोतों व उनके घाटों व आस पास के क्षेत्रों की साफ सफाई कर पूरा वातावरण स्वच्छ बनाते हैं। घाटों पर कच्ची मिट्टी की वेदी बनाया जाता है। पर्व हेतु तामसी भोजन त्यागकर सात्विक ढंग से प्रकृति प्रदत्त भोज्य पदार्थों, फल, फूल, गन्ना,गेहूं, चावल, चीनी व घी के प्रयोग से प्रसाद तैयार किया जाता है। बांस की बनी सुपेला और मिट्टी के दीयों ने जगमग रोशनी में पूजा सम्पन्न होती है।
सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा किया जाने वाला यह निर्जला व्रत प्रकृति के एकमात्र प्रत्यक्ष देव सूर्य व उनकी अर्धांगिनी उषा व प्रत्यूषा को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस व्रत से मनोवांछित फल, संतान सुख के साथ पारिवारिक सुख शान्ति की प्राप्ति होती है। रामायण और महाभारत के साथ ही साथ पौराणिक कथाओं में भी इसका वर्णन किया गया है। वर्ष में दो बार (चैत्र शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि) को सूर्य देव की उपासना का विशेष वैज्ञानिक महत्व है। यहीं से प्रकृति में ऋतु परिवर्तन होता है। चैत्र मास में वहीं से प्रकृति ठंड से गर्म होती है तो कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी से प्रकृति में ऋतु परिवर्तन के कारण ठंड की दस्तक आरंभ होती है।
इस दिन का महत्त्व खगोलीय व वैज्ञानिकी विद्वानों की नजर में भी विशेष है। वैज्ञानिकी व ज्योतिषीय गणनानुसार षष्ठी तिथि को खगोलीय परिवर्तन होता है। चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें चन्द्र सतह व वायुमंडल के स्तरों से आकर्षित हो जाती हैं तथा सूर्यास्त व सूर्योदय के समय इनकी सघनता सर्वाधिक होती है। सूर्य से उत्सर्जित अल्ट्रावायलेट किरणें जब वायुमंडल में प्रवेश करती हैं तो वहां मौजूद आयन मंडल इन अल्ट्रावायलेट किरणों के सहयोग से अपने में मौजूद प्राणवायु(आक्सीजन) को संष्लेषित कर उसे एलोट्रोप ओजोन में सुरक्षित कर लेता है। इस क्रिया में अल्ट्रावायलेट किरणों का अधिकांश भाग वायुमंडल में ही समाप्त हो जाता है और अल्ट्रावायलेट किरणों का सुक्ष्म मात्रा में अवशेष भाग पृथ्वी पर पहुंचता है जो जीवों के लिए ग्रहणीय होता है। सूर्योपासना के उसी क्रम में व्रतियों के साथ उनके परिजन व दर्शकगण खुले मैदान में नदी, पोखरों, तालाबों व नहरों जैसे जल स्रोतों के सम्मुख पहुंचते हैं तो वही अल्ट्रा वायलेट किरणें उनके शरीर में प्रविष्ट होकर आन्तरिक उर्जा व रोग प्रतिरोधक क्षमता को चैतन्यता प्रदान कर उसे सबल बनाती है और पृथ्वी के हानिकारक जीवाणुओं का नाश करती है।
चार दिनों तक चलनेवाले इस व्रत का आरम्भ तो षष्ठी तिथि से दो दिन पूर्व ही हो जाता है। व्रत करनेवाले स्त्री पुरूष सात्विक रीति से, दो दिन पूर्व ही लौकी व अरवा चावल का भात खाकर शरीर को पावन करती हैं। अगले दिन खरना होता है,जिसमें दिन भर अन्न जल त्याग कर व्रत रहकर संध्या समय खीर पूड़ी बनाया जाता है और पूजन अर्चन कर भोग लगाकर उसे ग्रहण करते हैं। तीसरे दिन मुख्य पर्व होता है। इस दिन व्रती अन्न जल छोड़ कर पूरे दिन छठ पर्व की तैयारी करती हैं। प्रसाद के लिए चीनी, चावल, गेहूं, घी आदि के साथ पकवान बनाये जाते हैं। प्रसाद के लिए हर प्रकार के फलादि बांस के बने टोकरियों में रखकर पुजा स्थल पर दीप जलाकर व देवी के गीत गाते हुए पूजा की तैयारी में जूटी रहती है। सूर्यास्त से पूर्व सभी व्रती अपने जलते दीप, पूजन सामग्रियों, फल व प्रसाद से भरे टोकरियों तथा गन्ने के साथ घाटों तक पहुचते हैं और घाट पर अपनी वेदी पर सामग्री रखकर पूजन करती हैं। व्रती जल में खड़ा हो कर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देकर जलते दीप संग अपने घर वापस होती हैं और रात भर जलते दीप के प्रकाश में जागरण करती हैं।
दूसरे दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में एक बार फिर अपने सभी सामग्री व जलते दीप संग गीत गाते हुए पुनः अपने घाटों पर पहुंच कर वेदी पर सामग्री रखकर पूजन अर्चन करती हैं और फिर जल में खड़ा होकर उदयागामी सूर्य को गौदुग्ध का अर्घ्य देकर जलते दीप को जलधारा में प्रवाहित कर अपना व्रत पूर्ण करती हैं।
इस वर्ष छठ का मुख्य पर्व शुक्रवार बीस नवम्वर को मनाया जायेगा। उस दिन सूर्यास्त संध्या समय पांच बजकर इक्कीस मिनट पर होगा और अगले दिन 21 नवम्बर को सूर्योदय प्रातः छह बजकर उन्तालीस मिनट पर होगा।