नयी दिल्ली: 23 अक्टूबर (ए)
) उच्चतम न्यायालय ने नाबालिगों से जुड़े संपत्ति लेनदेन पर एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को वयस्क होने पर अपने स्वाभाविक अभिभावकों द्वारा अदालत की मंजूरी के बिना किए गए संपत्ति हस्तांतरण को अस्वीकार करने के लिए मुकदमा दायर करने की अनिवार्य आवश्यकता नहीं है।
सात अक्टूबर को दिए गए फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा कि जब कोई नाबालिग वयस्क हो जाता है, तो वह अपने अभिभावक द्वारा की गई संपत्ति के हस्तांतरण को अपने स्पष्ट और निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार कर सकता है, जैसे कि उस संपत्ति को स्वयं बेच देना या किसी और को स्थानांतरित कर देना।
यह फैसला न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने ‘के. एस. शिवप्पा बनाम श्रीमती के नीलाम्मा’ मामले में सुनाया।
न्यायमूर्ति मिथल ने निर्णय लिखते हुए कहा, ‘‘यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाबालिग के अभिभावक द्वारा निष्पादित ‘अमान्य करने योग्य’ (वॉयडेबल) लेनदेन को वह नाबालिग वयस्कता हासिल करने पर एक निश्चित समय सीमा के भीतर ऐसे लेनदेन को निरस्त करने के लिए मुकदमा दायर करके या अपने निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार या नजरअंदाज कर सकता है।’’
फैसले में कहा गया है कि विवादास्पद प्रश्न यह था कि क्या नाबालिगों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने स्वाभाविक अभिभावक द्वारा निष्पादित पूर्व विक्रय विलेख को रद्द कराने के लिए वयस्क होने पर निर्धारित समयावधि के भीतर वाद दायर करें।
इसमें कहा गया कि प्रश्न यह है कि क्या वयस्क होने के तीन वर्ष के भीतर उनके आचरण के माध्यम से इस तरह के विक्रय विलेख को अस्वीकृत किया जा सकता है।
सवालों के जवाब देने के लिए, पीठ ने हिन्दू अप्राप्तवयता संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा सात और आठ का हवाला दिया तथा कहा, ‘‘प्रावधानों को सरलता से पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाबालिग के स्वाभाविक अभिभावक को अदालत की पूर्व अनुमति के बिना नाबालिग की अचल संपत्ति के किसी भी हिस्से को बंधक रखने, बेचने, उपहार देने या अन्य किसी प्रकार से हस्तांतरित करने या यहां तक कि ऐसी संपत्ति के किसी भी हिस्से को पांच साल से अधिक अवधि के लिए या नाबालिग के वयस्क होने की तारीख से एक वर्ष से अधिक अवधि के लिए पट्टे पर देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है।’’
यह विवाद कर्नाटक के दावणगेरे के शामनूर गांव में दो समीपवर्ती भूखंडों – संख्या 56 और 57 – से जुड़ा था, जिसे मूल रूप से 1971 में रुद्रप्पा नामक व्यक्ति ने अपने तीन नाबालिग बेटों, महारुद्रप्पा, बसवराज और मुंगेशप्पा के नाम पर खरीदा था।
जिला अदालत से पूर्व अनुमति लिये बिना, रुद्रप्पा ने ये प्लॉट किसी तीसरे पक्ष को बेच दिए। प्लॉट संख्या 56 एस आई बिदारी को बेच दिया गया और बाद में 1983 में बी टी जयदेवम्मा ने इसे खरीद लिया।
नाबालिगों के वयस्क होने के बाद, उन्होंने और उनकी मां ने 1989 में वही प्लॉट के.एस. शिवप्पा को बेच दिया।
जयदेवम्मा द्वारा स्वामित्व का दावा करते हुए दायर किया गया दीवानी मुकदमा अंततः कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया, जिसने नाबालिगों को अपने स्वयं के बिक्री विलेख के माध्यम से अपने पिता की बिक्री को अस्वीकार करने के अधिकार को बरकरार रखा।
इसी तरह का लेन-देन प्लॉट संख्या 57 के साथ हुआ, जिसे रुद्रप्पा ने अदालत की अनुमति के बिना कृष्णोजी राव को बेच दिया, जिन्होंने इसे 1993 में के. नीलम्मा को बेच दिया।
नाबालिगों ने वयस्क होने पर उसी प्लॉट को के.एस. शिवप्पा को बेच दिया, जिसने बाद में दोनों प्लॉट को मिलाकर एक मकान बना लिया।
इसके बाद नीलम्मा ने स्वामित्व का दावा करते हुए दावणगेरे में अतिरिक्त दीवानी न्यायाधीश के समक्ष मामला दायर किया।
निचली अदालत ने उसके मुकदमे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि रुद्रप्पा द्वारा की गई बिक्री अमान्य करने के योग्य है तथा नाबालिगों द्वारा बाद में की गई बिक्री से वैध रूप से अस्वीकृत हो गई।
हालांकि, 2005 में प्रथम अपीलीय न्यायालय और 2013 में उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को पलट दिया तथा कहा कि चूंकि नाबालिगों ने अपने पिता के विक्रय विलेख को रद्द करने के लिए कोई औपचारिक मुकदमा दायर नहीं किया था, इसलिए लेन-देन पक्का माना जाएगा।
इसके बाद शिवप्पा ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
प्रावधानों का उल्लेख करते हुए उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि कोई भी स्वाभाविक अभिभावक न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना नाबालिग की अचल संपत्ति को हस्तांतरित नहीं कर सकता और ऐसा कोई भी लेनदेन नाबालिग के कहने पर अमान्य करने योग्य हो जाएगा।
हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि कानून में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि ऐसे अमान्य किये जाने योग्य लेनदेन को किस प्रकार अस्वीकृत किया जाना चाहिए।