पं. मदनमोहन मालवीय – पत्रकारिता, भारतीय संस्कृति व शिक्षा के पुरोधा

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महामना जयन्ती(25 दिसम्बर) पर लेख


डा. ए.के.राय
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक, मां सरस्वती के वरद पुत्र, मां भारती के सपूत, युग द्रष्टा, पत्रकारों के अग्रज, प्रखर वक्ता, सामाजिक चेतना व भारतीय संस्कृति के उत्प्रेरक भारत रत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बल पर भारतीयों के प्रेरणास्रोत हैं। यह एकमात्र ऐसे महापुरुष रहे जिसे महामना के सम्मान से विभूषित किया गया।
मालवीय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रयाग की धरती पर 25 दिसंबर 1861 को पितामह प्रेमधर चतुर्वेदी के पौत्र के रूप में हुआ था। पिता पंडित बैजनाथ दुबे तथा माता मूना देवी की पांचवी संतान के रूप में जन्मे इस बालक ने अपनी मेधा व प्रतिभा के बल पर राष्ट्रहित, सनातन धर्म तथा शिक्षोत्थान के लिए जो कार्य किया,उसके लिए वह देश ही नहीं बल्कि विश्व में अमर कीर्ति स्थापित कर गये। उनके पूर्वज मध्य भारत के मालवा प्रांत से आकर प्रयाग में बसे थे, फलस्वरूप ये लोग मालवीय उपाधि धारण करते हैं।
शालीन माता एवं संस्कृत के प्रकांड विद्वान पिता की देख-रेख का प्रभाव मालवीय जी के जीवन से झलकता रहा। पिता ने इन्हें 5 वर्ष की उम्र में पंडित हरदेव शर्मा के ज्ञानोपदेश पाठशाला में शिक्षा अध्ययन के लिए प्रवेश कराया वहां प्राथमिक शिक्षा पूरी करते हुए के इलाहाबाद के जिला स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही संस्कृत और हिंदी पर अच्छी पकड़ के कारण उन्होंने मकरंद उपनाम से कविताएं भी लिखनी प्रारंभ कर दी। इनकी मनभावन कविताओं को लोग चाव से पढ़ते थे। 1879 में उन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी मेधा, लगन और विचारों से ओतप्रोत होकर हैरिसन स्कूल के प्रधानाचार्य ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कोलकाता विश्वविद्यालय भेजा। जहां से 1884 में उन्होंने बी.ए.की उपाधि प्राप्त की। इसके उपरांत मां के आग्रह पर दो वर्षों तक सरकारी स्कूल में शिक्षा दी और फिर कई वर्षों तक वकालत भी की, बावजूद इसके उनका ध्यान आरंभ से ही देश सेवा, समाजोत्थान तथा धर्म सेवा की ओर अग्रसर रहा। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार तथा राष्ट्र की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने वाले मनीषी का मन, वाणी, विचार पर सदा संयम रहा। वह भारतीय संस्कृति के पोषक रहे। मालवीय जी ने शिक्षा के माध्यम से देश को जागृत करने का कार्य किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में आपकी अमर कीर्ति आज भी भारतीयों के दिल मे
अंकित है। जनमानस उन्हें भारतीय पुनर्जागरण के प्रतीक मानता है। उनकी विलक्षण प्रतिभा का लोहा ब्रितानी हुकूमत भी मानती रही। अपनी विद्वता, कर्तव्यनिष्ठा, सत्य पालन और देश प्रेम के कारण ही वे चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। परतंत्रता की बेड़ियों से जकड़े देशवासियों को जगाने के लिए उन्होंने कई अखबारों को अपनी लेखनी से जागृत किया। काला काकर के राजा रामपाल सिंह के आग्रह पर मालवीय जी ने उनके हिंदी अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान का 1887 में लगभग ढाई वर्षों तक तक संपादन किया तो वहीं कांग्रेसी नेता पंडित अयोध्या नाथ के अखबार इंडियन ओपिनियन के संपादन में भी सहयोग दिया। उस समय ब्रितानी हुकूमत के समर्थक पायोनियर के समकक्ष उन 1909 उन्होंने प्रयाग से ही दैनिक लीडर अखबार निकालकर लोगों को जगाने का कार्य किया। दिल्ली जाकर अव्यवस्थित हिंदुस्तान टाइम्स को 1924में पटरी पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी भाषा के उत्थान में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। यह उनकी ही देन रही कि देवनागरी लिपि व हिंदी भाषा को पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनाल्ड के समक्ष 1898 में कचहरियों में प्रवेश मिला। हिंदी साहित्य सम्मेलन के 1910 के अध्यक्षीय संबोधन में अपने सारगर्भित भाषण में उन्होंने हिंदी के वर्चस्व पर जो भविष्यवाणी की थी कि हिंदी एक दिन राष्ट्रभाषा बनेगी, जो अक्षरशः साबित भी हुई। देश के प्रति उनके स्मरण को चिरस्मरणीय बनाने हेतु भारतीय संसद में महामना का तैल चित्र लगा, जिसका विमोचन 19 दिसंबर 1957 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा किया गया था। इसके बाद 24 दिसंबर 2014 को भारत सरकार द्वारा मालवीय जी को भारत रत्न सम्मान से भी सम्मानित किया गया।
परोपकार एवं उदारता से परिपूर्ण देश भक्त, समाज सुधारक मालवीय जी के विचारों को आत्मसात कर उनके पदचिन्हों पर चलकर हम देश को उन्नति के पथ पर अग्रसर कर सकें,यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।