महिला आरोपी का कौमार्य परीक्षण लैंगिक भेदभाव, असंवैधानिक: दिल्ली उच्च न्यायालय

राष्ट्रीय
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नयी दिल्ली, सात फरवरी (ए) दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को व्यवस्था दी कि महिला आरोपी का ”कौमार्य परीक्षण” कराना असंवैधानिक, लैंगिक भेदभाव और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।.

अदालत ने कहा कि ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं है जो ‘कौमार्य परीक्षण’ का प्रावधान करती हो और ऐसा परीक्षण अमानवीय व्यवहार का एक रूप है।.

यह आदेश न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने सिस्टर सेफी की याचिका पर सुनाया , जिन्होंने 1992 में केरल में एक नन की मौत से संबंधित आपराधिक मामले के सिलसिले में उनका ‘कौमार्य परीक्षण’ कराए जाने को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी।

न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, ‘‘यह घोषित किया जाता है कि हिरासत में ली गयी एक महिला, जांच के दायरे में आरोपी, पुलिस या न्यायिक हिरासत में गयी महिला का कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है।’’

न्यायाधीश ने कहा, ‘इसलिए, यह अदालत व्यवस्था देती है कि यह परीक्षण लैंगिक भेदभाव पूर्ण है और महिला अभियुक्त की गरिमा के मानवाधिकार का उल्लंघन है, अगर उसे हिरासत में रखते हुए इस तरह का परीक्षण किया जाता है।’

अदालत ने जोर देकर कहा कि एक महिला की ‘हिरासत में गरिमा’ की अवधारणा के तहत पुलिस हिरासत में रहते हुए भी सम्मान के साथ जीने का महिला का अधिकार शामिल है और उसका कौमार्य परीक्षण करना न केवल उसकी शारीरिक पवित्रता, बल्कि उसकी मनोवैज्ञानिक पवित्रता के साथ जांच एजेंसी के हस्तक्षेप के समान है।

अदालत ने यह भी कहा कि गरिमा का अधिकार तब भी निलंबित नहीं होता है, जब किसी व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया जाता है या उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है तथा जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत ही निलंबित किया जा सकता है, जो न्यायोचित एवं निष्पक्ष होना चाहिए, न कि मनमाना, काल्पनिक और दमनकारी।

अदालत ने कहा, ‘आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार उसी क्षण निलंबित हो जाता है, जब उसे गिरफ्तार किया जाता है, क्योंकि यह राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक हो सकता है। हालांकि, आरोपी, विचाराधीन या दोषी व्यक्ति के गरिमा के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता।