नयी दिल्ली: चार मार्च (ए) उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को सहमति का ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि सांसदों और विधायकों को सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के मामले में अभियोग से कोई छूट नहीं होती है।
न्यायालय के इस फैसले से सांसदों एवं विधायकों को संरक्षण देने संबंधी उसका झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) रिश्वत मामले में 1998 का फैसला पलट गया है। यह मामला 1993 में पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार के लिए खतरा पैदा करने वाले अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करने के लिए पांच झामुमो नेताओं के रिश्वत लेने से जुड़ा है।प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि सदन के सदस्यों के भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव कमजोर होती है।
पीठ ने कहा कि रिश्वतखोरी के मामलों में संसदीय विशेषाधिकारों के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं है और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) रिश्वत मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाए गए 1998 के फैसले की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है।
अनुच्छेद 105 और 194 संसद और विधानसभाओं में सांसदों और विधायकों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों से संबंधित हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न्यायालय के इस फैसले को ‘‘शानदार’’ करार देते हुए कहा कि इससे देश में साफ-सुथरी राजनीति सुनिश्चित होगी तथा व्यवस्था में लोगों का विश्वास गहरा होगा।
मोदी ने इस फैसले से संबंधित एक रिपोर्ट सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर साझा करते हुए लिखा, ‘‘स्वागतम, माननीय उच्चतम न्यायालय का एक शानदार निर्णय, जो स्वच्छ राजनीति सुनिश्चित करेगा और व्यवस्था में लोगों के विश्वास को गहरा करेगा।’’
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए फैसले का मुख्य भाग पढ़ते हुए कहा, ‘‘सांसद एवं विधायकों द्वारा रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट करते हैं।’’
इस पीठ में न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना, न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘यह (भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी) संविधान की आकांक्षाओं और विचारशील आदर्शों के लिए विनाशकारी है और एक ऐसा राजतंत्र स्थापित करता है जो नागरिकों को एक जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधित्व प्रदान करने वाले लोकतंत्र से वंचित करता है।’’
न्यायालय ने ‘पी. वी. नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई’ मामले में 1998 के फैसले में बहुमत और अल्पमत के तर्क का विश्लेषण करते हुए कहा कि उसने इस विवाद के सभी पहलुओं पर स्वतंत्र रूप से फैसला सुनाया है- भले वह संविधान के अनुच्छेद 105 से संबंधित हो और 194 से जुड़ा हो, कि क्या एक सांसद या विधायक किसी आपराधिक अदालत में रिश्वतखोरी के आरोप में अभियोग से छूट का दावा कर सकता है।
सात न्यायाधीशों की पीठ 1998 के फैसले पर पुनर्विचार कर रही थी।प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हम इस पहलू पर बहुमत के फैसले से असहमत हैं और उसे खारिज करते हैं।’
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1998 में ‘पी वी नरसिम्हा राव बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई)’ मामले में दिए गए अपने बहुमत के फैसले में कहा था कि सांसदों को संविधान के अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) के तहत सदन के अंदर दिए गए किसी भी भाषण और वोट के लिए घूस के आपराधिक मुकदमा से छूट प्राप्त है।
सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सोमवार को कहा कि 1998 के बहुमत के फैसले का ‘‘सार्वजनिक हित, सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव’’ पड़ा है।
इसमें कहा गया है, ‘‘विधायिका का कोई भी सदस्य सदन में वोट डालने या भाषण देने के लिए रिश्वतखोरी के आरोप में अभियोग से अनुच्छेद 105 और 194 के तहत छूट पाने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता।’’
न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 एक ऐसे माहौल को बनाए रखने का प्रयास करते हैं, जिसमें सदन के भीतर बहस और विचार-विमर्श हो सके।
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘यह उद्देश्य तब नष्ट हो जाता है जब किसी सदस्य को रिश्वत देकर एक निश्चित तरीके से वोट देने या बोलने के लिए प्रेरित किया जाता है।’’