शीर्ष न्यायालय ने महिला को 32 सप्ताह से अधिक का गर्भ गिराने की अनुमति देने से इनकार किया

राष्ट्रीय
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नयी दिल्ली: 31 जनवरी (ए) उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल अक्टूबर में अपने पति को खो चुकी 26 वर्षीय एक महिला को 32 सप्ताह से अधिक का गर्भ गिराने की अनुमति देने से बुधवार को इनकार कर दिया और कहा कि मेडिकल बोर्ड ने यह माना है कि भ्रूण किसी भी तरह से असामान्य नहीं है।

न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति प्रसन्ना भालचंद्र वरले की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 23 जनवरी के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।उच्च न्यायालय ने 23 जनवरी के आदेश में चार जनवरी के अपने पहले के उस फैसले को वापस ले लिया था जिसमें महिला को 29 सप्ताह के भ्रूण को समाप्त करने की अनुमति दी गई थी।

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘यह 32 सप्ताह का भ्रूण है। इसे कैसे समाप्त किया जा सकता है? मेडिकल बोर्ड ने भी कहा है कि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। केवल दो सप्ताह की बात है, फिर आप चाहें तो इसे गोद लेने के लिए दे सकते हैं।’

महिला की ओर से पेश वकील अमित मिश्रा ने कहा कि अगर वह बच्चे को जन्म देगी तो यह उसकी इच्छा के खिलाफ होगा और उसे जीवन भर यह सदमा झेलना होगा।

पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने प्रत्येक बिंदु पर विचार किया है, जिसमें मेडिकल बोर्ड की राय भी शामिल है।

न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा, ‘हम मेडिकल बोर्ड की राय से आगे नहीं जा सकते। मेडिकल बोर्ड ने कहा है कि यह एक सामान्य भ्रूण है । यह भी राय दी गई है कि यदि याचिकाकर्ता गर्भावस्था जारी रखती है तो उसे भी कोई खतरा नहीं है।’

मिश्रा ने दलील दी कि महिला एक विधवा है और उसे जीवन भर सदमा सहना होगा तथा अदालत को उसके हित पर विचार करना चाहिए।

न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने कहा, ‘हमें केवल उसके हित पर ही विचार क्यों करना चाहिए?’

इसके बाद पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और याचिका खारिज कर दी।

उच्च न्यायालय ने अवसाद से पीड़ित विधवा को चार जनवरी को 29 सप्ताह के भ्रूण को इस आधार पर समाप्त करने की अनुमति दे दी थी कि गर्भावस्था जारी रखने से उसके मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है। इसने कहा था कि प्रजनन विकल्प के अधिकार में प्रजनन न करने का अधिकार भी शामिल है।उच्च न्यायालय का 24 जनवरी का आदेश केंद्र द्वारा याचिका दायर किए जाने के बाद आया था, जिसमें गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन की अनुमति देने वाले चार जनवरी के आदेश को इस आधार पर वापस लेने का आग्रह किया गया था कि बच्चे के जीवित रहने की उचित संभावना है और अदालत को अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की सुरक्षा पर विचार करना चाहिए।